Tuesday 22 March 2016

पर्दा

पर्दा
पीले पड़ गए काग़ज़ पर,
एक अधलिखि नज़्म,
और जलते बुझते चिराग़,
लिखाई साफ़ नहीं दिखती,
जैसे हो कोई नक़ाब,
ख़ामोश चेहरे पर एक परदे सा,

कहीं स्याही बिखरी है,
कहीं नुखते मिट गए हैं,
वो नाम जो लिख कर मिटाया गया,
वो लफ़्ज़ जो छिपाया गया,
वो बात जो लिखते लिखते,
कही ना गयी किसी सबब,
ज़ाहिर तो है सब ...
हर्फ़ बोलते हैं,
बस जहाँ से ख़ामोश हैं वो,
उन्हें वहाँ से सुनिए...
-विनी
२७/१२/१५

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