रेख
शाम की बरखा ने आज फिर
राह की रेख मिटा दी
धुंधलके में आज फिर
भटक गयी हूँ मैं ,
अपने ही शहर में,
अजनबी सी में,
नए अनजान मोड़ पर खड़ी हूँ,
सेहमी , सिमटी, हिचकिचाती ,
कोई पूछ भी ले तो ,
अक्सर कह भी नहीं पाती,
कहाँ से आयी, जाना कहाँ है मुझे,
जाने वो कैसे लोग होते हैं,
जो हर हाल अपनी राह ही चलते हैं,
राह की रेख हो,
या न भी हो। ..
`~ विन्नी
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