Wednesday 16 May 2018

पैगाम मंज़िल तक पहुंचे !

इंतज़ार
हम मुन्तज़िर हैं अज़ल से
कुरबतों की इनायत हो
वस्ल की रात हो
चाँद उरूज पर हो
उन के साथ का ख्वाब है
मुख़्तसर सी , नाज़ुक सी बात है
आखिर किस तरहाँ कहें
इस  ओर रिवायतें ज़बान रोकें हैं
उधर अरमान मचले जाते हैं
 मुसलसल इंतज़ार में
दिन व्  रात ख़्वाबीदा से हैं
एक नज़र देख ले
नवाज़िश हो।

मुक़ददर का फेर है
वगरना यूं हम भी बुरे नहीं... !
~ विन्नी
१६/५/१८


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