Tuesday 22 May 2018

rekh...(the line in the sands)




रेख 

शाम की बरखा ने आज फिर 
राह की रेख मिटा दी 
धुंधलके में आज फिर 
भटक गयी हूँ मैं ,
अपने ही शहर में,
अजनबी सी में, 
नए अनजान मोड़ पर खड़ी हूँ,
सेहमी , सिमटी, हिचकिचाती , 
कोई पूछ भी ले तो ,
अक्सर कह भी नहीं पाती,
कहाँ से आयी, जाना कहाँ है मुझे,
जाने वो कैसे लोग होते हैं, 
जो हर हाल अपनी राह ही चलते हैं, 
राह की रेख हो, 
या न भी हो। .. 
`~ विन्नी  

Wednesday 16 May 2018

पैगाम मंज़िल तक पहुंचे !

इंतज़ार
हम मुन्तज़िर हैं अज़ल से
कुरबतों की इनायत हो
वस्ल की रात हो
चाँद उरूज पर हो
उन के साथ का ख्वाब है
मुख़्तसर सी , नाज़ुक सी बात है
आखिर किस तरहाँ कहें
इस  ओर रिवायतें ज़बान रोकें हैं
उधर अरमान मचले जाते हैं
 मुसलसल इंतज़ार में
दिन व्  रात ख़्वाबीदा से हैं
एक नज़र देख ले
नवाज़िश हो।

मुक़ददर का फेर है
वगरना यूं हम भी बुरे नहीं... !
~ विन्नी
१६/५/१८


Monday 14 May 2018

chup




आज  उस ने पूछ ही  लिया आख़िर, 
इस क़दर ख़ामोश  क्यों हो? 
क्या कहूँ 
क्या न कहूँ 
खुद ही सुन  ले  
वो जिसे सुनने का शऊर हो  

चुप हूँ उन खामोश किताबों की मानिंद 
जिन की ज़िल्दों  से अलफ़ाज़ झांकते हैं 
~  विन्नी 
14/5/18