Wednesday, 10 February 2021




 यकबयक 

यूं मामूली सा दिन था 

हवाओं में सर्द नमी सी थी 

सेहर से ही पानियों के किनारे 

धुंध सी थी 

दूर , धुँधला सा  एक अक्स  

शायद साहिल पर जगह होने के इंतज़ार में 

कोई कश्ती 

कभी दिख जाती थी , कभी नहीं भी 

और कोई आस पास न था 

थी,  फ़िज़ाओं में घुली वही बू 

वही अनबूझा सा एहसास 

वही अनकही सी आवाज़ 

वही अनसुने से अलफ़ाज़ 

वो जो अब था नहीं रूबरू 

उसी मंज़र की उलझन में धड़कते अरमान 

 यूं लगा की माज़ी सामने खड़ा हो

हाथ बढ़ा कर छू लू उसे .. 


और फिर, 

याद की सरहद के इस पार 

यकबयक  ये अहसास  भी ,

की माज़ियों में जीने से 

जिंदगी की सचाइयों से राब्ता टूट जाता है। .. 

~ विन्नी 

१०/२/२१